Sunday, September 20, 2009

बुतों का बाजार-हास्य व्यंग्य कविता (buton ka bazar-hindi hasya kavita)

चौराहे पर खड़े पत्थर के बुत पर

कंकड़ लगने पर भी लोग

भड़क जाते हैं।

अगला निशाना खुद होंगे

यह भय सताता है

या पत्थर के बुत से भी

उनको हमदर्दी है

यह जमाने को दिखाते हैं।

कहना मुश्किल है कि

लोग ज्यादा जज्बाती हो गये हैं

या पत्थरों के बुतों के सहारे ही

खड़े हैं उनके घर

जिनके ढहने का रहता है डर

जिसे शोर कर वह छिपाते हैं।

यह मासूमियत है जिसके पीछे चालाकी छिपी

जो लोग कंकड़ लगने से कांप जाते हैं।

……………………….

बुतों के पेट से ही

बुत बनाकर वह बाजार में सजायेंगे।

समाज में विरासत मिलती है

जिस तरह अगली पीढ़ी को

उसी तरह खेल सजायेंगे।

जज्बातों के सौदागर

कभी जमाने में बदलाव नहीं लाते

वह तो बेचने में ही फायदा पायेंगे।

करना व्यापार है

पर लोगों के जज्बातों की

कद्र करते हुए सामान सजायेंगे।

………………………………

‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।

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लेखक संपादक-दीपक भारतदीप

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